बिलासपुर संभाग

कहानी”आओ एक दीप धरें” डॉ.सुरेश यादव

कहानी

“हैप्पी दीपावली अंकल” एक मधुर आवाज कानों में पड़ी।एक बारगी तो कुछ समझ नहीं आया कि किसे मुबारकबाद दिया जा रहा है।पीछे मुड़कर देखा तो तेरह-चौदह साल की एक प्यारी- सी बच्ची चेहरे पर मुस्कान लिए मेरी ओर देखकर हाथ हिला रही थी। मैंने अगल-बगल देखा, शायद उसे कुछ धोखा हुआ हो, गलती से मेरी ओर इशारा कर रही हो।भ्रमवश मुझे अपना परिचित समझ बैठी हो। लेकिन वो मेरी ओर ही इशारा कर रही थी।मैंने भी अपना फर्ज निभाया प्रत्युत्तर में हाथ हिला हैप्पी दीपावली बेटा कह आगे बढ़ गया। वो भी अपनी सहेली के साथ हँसती गंतव्य की ओर बढ़ गई।

दीपावली की खरीददारी मेरी हो चुकी थी। बिल का भुगतान कर कार की डिक्की में सामानों को सहेज कर घर की ओर प्रस्थान किया। रास्ते भर मेरा ध्यान रह-रहकर उस बच्ची पर केंद्रित हो जाता था।

उसका सलोना चेहरा,उसकी आँखों में मेरे प्रति आदर और श्रद्धा के भाव। आखिर कौन थी वो ?वो मुझे कैसे जानती थी ?

याद करने की कोशिश की। दिमाग पर जोर डाला तब जाकर परत- दर- परत एक-एक घटना मानस पटल पर किसी चलचित्र की भाँति चलने लगी।
अरे !पिछले दीपावली की ही तो बात है। देर तक आफिस का आवश्यक कार्य निपटा कर मातहतों को जरूरी निर्देश देकर गाँव जाने के लिए रात को निकला था। शहर की घनी आबादी से 60 किलोमीटर दूर सुरम्य वादियों में बसा मेरा गाँव किकरित अब कस्बा का रूप लेने लगा था। स्कूल ,कालेज,अस्पताल अब वहांँ भी विकसित हो गए थे। स्कूली पढ़ाई मैंने गाँव में ही पूरी की थी।पढ़ने में थोड़ा तेज था ।पिताजी ने शहर के कॉलेज में दाखिला करा दिया था। तब से लेकर आज तक नौकरी पेशा होने के कारण शहर का साथ ही नहीं छूटा।आज शहर में बड़ी आवाजाही थी।लोग दीपावली की खरीददारी में मशगूल थे।लोग परिवार सहित एक दुकान से दूसरी दुकान की ओर बढ़ रहे थे। रास्ते में जाम- सा लगा हुआ था। गाड़ी चलाना दूभर हो रहा था। रास्ते में गाड़ियाँ चीटियों की भाँति सरक रही थीं। घर के सभी सदस्यों के लिये दीपावली की खरीददारी मैंने पहले से कर ली थी। कुछ पैसे भी आज सुबह ही निकलवा लिए थे।बहुत वर्षों बाद घर में सब के साथ मिलकर दीपावली मनाने का ख्याल मन को रोमांचित कर रहा था। बड़े भैया भी भाभी,भतीजों के साथ दीपावली में घर आने के लिए निकल पड़े थे।मंँझले भैया परिवार सहित गाँव में ही रहते थे।पुष्तैनी खेतिहर जमीन की देखभाल और माता-पिता की सेवा का सौभाग्य हम दोनों भाइयों से ज्यादा उन्हें ही प्राप्त हुआ था।माँ-बाबूजी और भैया-भाभी तथा बच्चों के साथ दीपावली मनाने के ख्याल से ही मन गदगद् हो जा रहा था। पुरानी यादें ताज़ा हो रही थीं।
शहर का मुहाना पार करते ही गाड़ी ने रफ्तार पकड़ ली।शहर की विषैली आबोहवा से निकलते ही स्वच्छ हवा ने मन में ताजगी भर दी। मन में त्यौहार का उमंग लिए मेरी गाड़ी कुलाँचें भर रही थी।शरद ऋतु और काली स्याह रात। वातावरण में ठंडकता का एहसास । गाड़ी पूरी रफ्तार में दौड़ रही थी ।सर्द मौसम के कारण मैंने कार का शीशा चढ़ा दिया था,हालांँकि ऋतु के अनुरूप गरम कपड़े मैंने पहन रखे थे ।कार की स्टीयरिंग में बैठ सामने कार की हेडलाइट से पेड़-पौधे ,झाड़ियों के बनते बिगड़ते छायाचित्र देख बड़ा अच्छा लग रहा था।रास्ते मे पड़ने वाले गाँवों, कस्बों को पार करते हुए गाड़ी आगे बढ़ रही थी। ढलान भरा रास्ता पार करते ही जैसे ही घुमावदार रास्ता समाप्त हुआ ,गाड़ी की हैडलाइट सीधे रास्ते में दूर तक फैल गई।मेरी नजर सामने पड़ी तो उस बियाबान रास्ते के किनारे एक लड़की गाड़ी की ओर जोर-जोर से हाथ हिलाते घुप्प अंँधेरे किनारे की ओर इशारा करते हुए गाड़ी रुकवाने का प्रयास कर रही थी। गाड़ी की रफ्तार मैंने धीमी की। पल भर में अखबारों में आने वाले खबरों पर ध्यान गया कि आजकल किन-किन तरीकों से आम राहगीर को बीच रास्ते में लूट लिया जाता है,हत्या कर दी जाती है। मन अनहोनी की आशंकाओं से भर गया।रोएँ खड़े हो गए। मन में संँजोयी हुई दीपावली की उमंग एक ही क्षण में काफूर हो गई। मन में आया कि गाड़ी की रफ्तार बढाऊँ और भाग निकलूँ।मेरे मन में आशंकाओं ने घर कर लिया, लेकिन यह सोचकर कि शायद किसी मुसीबत में हो ,गाड़ी की रफ्तार मैंने धीमी कर दी।भय के साथ उससे थोड़े पहले मैंने गाड़ी रोकी।गाड़ी की हेडलाइट से अब उसका चेहरा स्पष्ट दिख रहा था। चेहरे पर असीम पीड़ा और डर के भाव थे।मेरी गाड़ी का रुकना उसके लिए किसी वरदान से कम नहीं था। वो मुझसे मदद मांँग रही थी। सर्द रात में उसकी बेबस और लाचार आंँखें मानो कुछ कहना चाह रही हो। इशारों में जैसे कि वो एक ही बार में सब कुछ कह देना चाह रही हो। नीचे उतरकर धीमे कदमों से मैं उसकी ओर बढ़ा।नजदीक जाकर देखा तो दंग रह गया ।क्या भयानक मंजर था? खून से सराबोर घायल व्यक्ति जमीन में पड़ा हुआ था। चेहरा खून से लहूलुहान था।जान पड़ता था कि साँसों ने जीवन का साथ छोड़ दिया हो ।लड़की बहुत सहमी और घबराई हुई थी।आँखों से आँसू और मुँह से केवल पापा-पापा शब्द ही निकल पा रहे थे।बगल में उनकी टूटी हुई गाड़ी पड़ी थी।लगता था कि कुछ देर पहले ही दुर्घटना हुई है।दुर्घटना भयावह थी , शरीर से काफी खून बह चुका था। चोट सिर पर लगी थी। गाड़ी से छिटक जाने के कारण शायद लड़की को कम चोट लगी थी। चेहरे पर हल्के खरोंच के निशान थे। लंँगड़ा कर चल रही थी। बहुत डरी और सहमी हुई थी। मैंने रास्ते के दोनों तरफ देखा ।चारों तरफ अंँधेरे का साम्राज्य था। केवल मेरी गाड़ी की हेडलाइट की रोशनी के अलावा वहाँ चारों तरफ घुप्प अंँधेरा था। दूर-दूर तक कोई आवाजाही नहीं थी। न ही कोई रोशनी दिखाई दे रही थी।मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था ।पहले तो लगा कि मैं क्यों इन झंझटों में फसूंँ, निकल चलूँ ,मुझे क्या लेना-देना है,कौन मेरे रिश्तेदार हैं।मेरी अंतरात्मा ने मुझे धिक्कारा। छी: एक-पढ़े लिखे व्यक्ति की ऐसी सोंच।मेरा अपने को उच्च कुलीन समझना व्यर्थ लग रहा था।आज समझ में आया कि संस्कारों की बात करना ,लेक्चर देना और असल जिंदगी में उसे अमली जामा पहनाने में कितना अंतर है। मेरे संस्कारों और ज़मीर ने मुझे अपने कर्तव्य पथ की ओर मोड़ दिया ।बिना समय गवाएँ मैने लड़की की मदद से घायल व्यक्ति को कार की पिछली सीट पर लिटाया।लड़की को आगे की सीट पर बिठाया। लड़की दर्द से कराह रही थी।उसको ढाढ़स बँधाकर मैंने गाड़ी की रफ्तार बढ़ा दी।रह-रहकर आशंकाएँ मन को मथ रही थीं। पता नहीं जान बचेगी भी या नहीं,खून जो इतना बह गया है।
इसी उधेड़बुन में कब अस्पताल पहुँच गये ,पता नहीं चला। घायल व्यक्ति की स्थिति को देखते हुए आनन-फानन में उसे डॉक्टरों की टीम ने आपातकालीन चिकित्सा मुहैया कराई। लड़की भी प्राथमिक चिकित्सा कक्ष में ले जाई गई। रात काफी हो चुकी थी। नींद और थकान ने मुझे घेर रखा था ।कब बैठे-बैठे आँख लग गई पता ही नहीं चला। नींद तब टूटी जब डॉक्टरों को यह कहते सुना कि- सिर में गंभीर चोट थी। खून बहुत बह गया था।वक्त रहते अस्पताल आ गया नहीं तो जान नहीं बचती। सुनते ही मेरी सारी थकान मिट गई। शरीर में रक्त का संचार बढ़ गया।मुझे मेरा होना सार्थक लगने लगा ।ऐसा लगा मानो दीपावली के सारे पटाखे एक साथ ही छूटने लगे हों,मिठाई की मिठास मुँह में घुल आई हो।रोशनी ने अंँधेरे का साम्राज्य छीन लिया हो। सर्वत्र प्रकाश ही प्रकाश हो। चारों ओर दीप जल उठे हों और जो सबसे अधिक प्रकाशवान दीया है वो मेरा है। नव जीवन का दीया,किसी की आशाओं,आकांक्षाओं और खुशियों का दीया।
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डॉ. सुरेश याद
जांजगीर (छ.ग.)

द बिलासा टाईम्स छत्तीसगढ़

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